बिहार में लोक सभा की 40 सीटें हैं. बीजेपी नेता अमित शाह का दावा है कि 2024 के आम चुनाव में एनडीए सभी सीटों पर जीत हासिल करेगा, लेकिन एक ताजा सर्वे बीजेपी नेता के दावे पर सवालिया निशान लगा रहा है.
2019 के आम चुनाव में बीजेपी को 39 सीटें मिली थीं, लेकिन तब से अभी तक स्थितियां काफी बदल चुकी हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के रूप में एनडीए की सीटों का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी से दूर जा चुका है – और इंडिया टुडे के सर्वे को देखें तो अब तक की सबसे बड़ी चुनौती उसी छोर से मिल रही है.
देश भर में तो सर्वे के आंकड़े लोक सभा की 306 सीटों के साथ बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने का संकेत दे रहे हैं, लेकिन बिहार को लेकर जो आंकड़े सामने आये हैं, वे काफी चौंकाने वाले लगते हैं.
बीजेपी को बिहार में कितनी सीटें मिलेंगी?
बिहार में राजनीतिक उथल पुथल कुछ दिनों से तो महाराष्ट्र के समानांतर ही चल रही है. फिर भी ये सर्वे बिहार के मुकाबले महाराष्ट्र में एनडीए का प्रदर्शन बेहतर बता रहा है. रही बात हिंदी पट्टी के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की तो बिहार के मुकाबले बीजेपी बाकी जगह ज्यादा बढ़िया प्रदर्शन कर सकती है.
सर्वे के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 80 में से 72 सीटें मिल सकती हैं. ठीक वैसे ही मध्य प्रदेश की 29 में से 23 सीटों पर बीजेपी कब्जा जमा सकती है – और राजस्थान की तो सभी 25 सीटें बीजेपी के खाते में जा सकती हैं. ये हाल तब है जब राजस्थान में बीजेपी सत्ता में भी नहीं है.
महाराष्ट्र में लोक सभा की 48 सीटें हैं, और सर्वे के अनुसार एनडीए को 20 सीटें ही मिलने का अनुमान लगाया गया है, जबकि विपक्षी गठबंधन INDIA 28 सीटें मिल सकती हैं.
इंडिया टुडे और सी-वोटर के सर्वे मूड ऑफ द नेशन के दौरान लोगों से लोक सभा चुनाव को लेकर भी सवाल पूछे गये – और जो नतीजे आये उसमें बिहार की 40 लोक सभा सीटों में से NDA को 14 जबकि INDIA गठबंधन को 26 सीटें मिलती देखी गयी हैं.
बिहार में पार्टी का ऐसा प्रदर्शन जहां बीजेपी नेतृत्व को परेशान करने वाला है, वहीं विपक्षी गठबंधन के पक्ष में सामने आ रहा नंबर भी काफी हैरान करने वाला है.
INDIA का जातीय सर्वे बनाम NDA का जातीय गठबंधन
2024 के चुनाव को ध्यान में रख कर ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार में जातीय सर्वे करा रहे हैं. बिहार में जातीय राजनीति का प्रभाव सबको पता है, और ये बात भी आसानी से समझी जा सकती है कि वोट बैंक को अपने पक्ष में खड़ा करने की कवायद चल रही है – लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि बीजेपी सब कुछ देखते हुए हाथ पर हाथ धरे बैठी है.
बीजेपी के साथ एनडीए में रहते हुए ही नीतीश कुमार ने जातीय सर्वे की भूमिका बना दी थी, लेकिन उनके कैबिनेट साथी तेजस्वी यादव बिहार में जातीय सर्वे कराये जाने का पूरा क्रेडिट आरजेडी नेता लालू यादव को दे चुके हैं.
वैसे तो लालू यादव पिछड़ों के नेता हैं, लेकिन तेजस्वी यादव को करीब 15 फीसदी यादव वोटर का नेता तो बना ही दिया है. यादव के बाद कुशवाहा वोटर का नंबर आता है, जो करीब 7 फीसदी है, जिसमें नीतीश कुमार की पैठ मानी जाती है.
नीतीश कुमार के लव-कुश समीकरण को न्यूट्रलाइज करने के लिए बीजेपी ने भी अपनी तरफ से चाल चल दी है – और आगे बढ़ते हुए ज्यादातर जातीय समीकरण साधने की तैयारी में जुट गयी है.
सितंबर, 2022 में अमित शाह ने सीमांचल दौरे में भविष्य का खाका खींच दिया था. अब तो तस्वीर भी धीरे धीरे साफ होने लगी है. अमित शाह ने कहा था, बीजेपी 2024 के लोक सभा चुनाव के बाद 2025 के विधानसभा चुनाव के लिए अपना मुख्यमंत्री चेहरा घोषित कर देगी.
जब संजय जायसवाल को हटाकर सम्राट चौधरी को बिहार बीजेपी की कमान सौंपी गयी तो इसे बीजेपी की तरफ से मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर भी देखा जाने लगा. सम्राट चौधरी के बहाने बीजेपी असल में लव-कुश समीकरण को साधने की कोशिश कर रही है.
लव-कुश राजनीति का एक बड़ा चेहरा उपेंद्र कुशवाहा भी हैं, ये बात अलग है कि चुनावी राजनीति में अब वो कोई खास प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं. 2014 में बीजेपी के साथ मिल कर वो 3 सीटें जीतने में सफल जरूर रहे हैं.
2019 से पहले ही एनडीए छोड़ देने के बाद पांच साल में घूमते फिरते उपेंद्र कुशवाहा फिर से बीजेपी के साथ आ चुके हैं. बीजेपी उनके हिस्से में सीटें तो कुछ खास देने से रही, लेकिन नीतीश कुमार के खिलाफ चुनाव प्रचार में लवकुश चेहरे के तौर पर पेश तो कर ही सकती है.
उपेंद्र कुशवाहा की ही तरह नीतीश कुमार को छोड़ कर जीतनराम मांझी ने भी बीजेपी से हाथ मिला लिया है.
ये ठीक है कि जीतनराम मांझी का चुनावी प्रदर्शन बहुत उल्लेखनीय नहीं रहा है, लेकिन जहां भी रहते हैं, उनकी मौजूदगी तो मजबूती से ही दर्ज होती है. मांझी के बयानों से बिहार में सुर्खियां तो बनती ही हैं. और अपनी जाति के वोटर को अपने गठबंधन साथी के सपोर्ट में मैसेज तो दे ही देते हैं.
अरसा बाद चिराग पासवान भी धीरे धीरे फॉर्म में लौटने लगे हैं. अकेले तो वो कुछ भी नहीं कर पा रहे थे, लेकिन बीजेपी के साथ आकर उसे पहले की तरह फायदा पहुंचाने लगे हैं.
क्या INDIA को लालू यादव का करिश्मा सीटें दिला रहा है?
2020 का विधानसभा चुनाव ऐसा रहा जिसमें लालू यादव बिहार से बाहर थे. ये बात अलग है कि रांची के अस्पताल में बनी जेल से भी वो बिहार की राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश करते रहे. एक विधायक के साथ उनकी बातचीत का वायरल ऑडियो तो आपको भी याद होगा ही.
लेकिन ये भी याद रहे कि जेल से छूटने के बाद लालू यादव बिहार में हो रहे उपचुनावों के लिए रैली करने गये थे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. ऐसा लगा लालू यादव का करिश्मा जाता रहा. ये सही कि लालू यादव आरजेडी को चुनाव नहीं जिता पाये, लेकिन ये भी सच है कि आरजेडी नेता ने बेटे तेजस्वी यादव को बिहार की सरकार में हिस्सेदार और फिर से डिप्टी सीएम तो बनवा ही दिया है.
राष्ट्रीय स्तर पर भी लालू यादव विपक्ष की राजनीति की महत्वपूर्ण कड़ी बने हुए हैं. कांग्रेस के साथ मिल कर पूरी व्यूह रचना कर रहे हैं. हाल ये है कि विपक्षी खेमे में कांग्रेस के साथ मिल कर नीतीश कुमार की चौतरफा घेरेबंदी कर चुके हैं.
लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या ये सब लोक सभा चुनाव में विपक्ष को बिहार में मोदी के खिलाफ वोट दिला पाएगा?
सवाल तो ये भी है कि बीजेपी आखिर कहां चूक रही है? चुनाव तो बीजेपी मोदी के चेहरे पर ही लड़ेगी, लेकिन पेंच कहां फंस रहा है?
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