कहानी – दूसरी शादी
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
आसमान जब दिवाली की रात पर पटाखों से जगमगा जाता था, जब सुनहरी आसमानी फुलझड़ियां बल खाती हुई लकीरों से आसमान को खूबसूरत बना देती थीं और जब गली के मोड़ पर चकरघिन्नी घुमाते हुए बच्चे खुश हो कर उछलते हुए तालियां पीटते थे तो पुरानी दिल्ली के कटरा इलाके के एक छोटे से मकान में रहने वाली सृष्टि उन सभी मंज़र को अपनी आंखों में कैद कर लेना चाहती थी। सृष्टि जब छोटी थी और स्कूल जाती थी तब से ही उसे आतिशबाज़ी का बेइंतिहा शौक था। दिवाली की तैयारी तो वो और उसकी पड़ोस में रहने वाली सहेली ज़ेबा, तीन महीने पहले से करने लगती थीं। बाकायदा एक लिस्ट बनाई जाती थी, कौन से कौन से रॉकेट लाने हैं, चकरघिन्नी कितनी और कहां से लानी हैं, रॉकेट किस दुकान से खरीदना है और अब तक कितने पैसे जमा हो गए… इस सब का हिसाब रखा जाता था। ये और बात है कि दिवाली की एक रात पहले उसके पापा उसे उतने ही पैसे और दे देते जितने उसने जोड़े थे… तो बजट डबल हो जाता और फिर तो पूछिये मत… सृष्टि को ऐसा लगता कि इस बार तो वो ऐसी आतिशबाज़ी करेगी कि दुनिया देखेती रह जाएगी।
ज़ेबा को उसके घर से बुलाती और दुकान की तरफ दौड़ लग जाती। फिर तो पूछिए मत… वो आतिशबाज़ी होती कि हर बार पिछले साल का रिकॉर्ड टूट जाता था।
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पर ये तो बचपन की बातें थी… अब तो सृष्टि की ज़ंदगी जवानी की दहलीज़ को बार करते हुए कई मंज़िलों को लांघते और कई मिलने बिखरने के कई तजुर्बों को पार करते हुए एक ऐसे मकाम पर आ गयी थी। जहां ज़िंदगी उतनी रौशन नही रही थी। कुछ साल पहले सृष्टि की शादी हुई थी… पर ज़िंदगी को उसका रौशन चेहरा शायद रास नहीं आया। तरुन से शादी के कुछ ही साल के बाद, एक रोड एक्सीडेंट में तरुण नहीं रहे। औऱ उसके बाद से सृष्टि अपने पापा के साथ ही रहने लगी। ज़िंदगी बहुत बहद गयी थी, दिवाली की रातों में जब पूरा मुहल्ला जगमगाता रहता तो सृष्टि के घर के दरवाज़े के किनारे पर दो दिये जगमगाते रहते।
बाबूजी उसकी दूसरी शादी की कोशिशें कर रहे थे। इस बीच, तरुन के ही एक खास दोस्त शोभित, जो उम्र में सृष्टि से 8 साल बड़े थे, उन्होने शादी की ख्वाहिश ज़ाहिर की थी। हालांकि बात अभी शुरुआती दौर में थी लेकिन बीते कुछ दिनों से ये सिलसिला ज़रा तेज़ हो गया था। एक शाम मां ने बताया की शोभित के घर से फोन आया था और वो लोग इसी इतवार बातचीत के सिलसिले में घर आना चाहते हैं। अंदाज़ा ये भी था कि अगर सब ठीक रहा तो होली के आसपास तारीख भी तय करेंगे। यूं तो तरुन के बाद से सृष्टि की ज़िंदगी शतरंज के स्याह-सफेद ख़ानों की तरह हो गई थी लेकिन आने वाला वक्त उसकी ज़िंदगी को एक नए रंग में रंगने वाला था। उसकी नीली आंखे सतरंगी सपनों से भर गईं। सृष्टि शोभित को पहचानती थी। वो तरुन के पुराने दोस्त थे। एक बार शोभित ने उन दोनों को अपने घर, दावत पर बुलाया था। इसके अलावा भी दो-तीन मौकों पर सृष्टि की शोभित से मुलाकात हुई थी। शोभित बेहद खामोश मिज़ाज थे। संजीदा रहते थे। सृष्टि का शोभित से जितनी बार भी आमना-सामना हुआ। उन्होने कभी खुद बात नहीं शुरु की। बस सर हिला कर नमस्ते का इशारा करते और मुस्कुरा देते। इससे ज्यादा बातचीत की गुंजाइश कभी बनी ही नहीं।
शोभित की उम्र तरुन के सभी दोस्तों में सबसे ज्यादा थी मगर उन्होने अबतक शादी नहीं की थी। सृष्टि ने तरुन से सुना था कि शोभित ने अपने पिता के गुज़र जाने के बाद अपनी तीनों बहनों की शादी करने के बाद ही खुद की शादी करने का फैसला लिया था, शायद इसीलिए काफी वक्त निकल गया।
उम्र का फर्क ज़रूर था लेकिन सृष्टी को शोभित पसंद थे। उनका ख़ामोश मिज़ाज, संजीदा अंदाज़ उसे अच्छा ही लगता था। उसे इस रिश्ते से कोई ऐतराज़ नहीं था। हालांकि अभी उसके मन से तरुन की यादें धुंधली नहीं पड़ी थी। उसे रह-रह कर तरुन का मुस्कुराता चेहरा याद आता। तरुन औरों से अलग था। सृष्टि उसकी पत्नी बाद में थी, पहले उसकी दोस्त थी। कितने नेक ख्यालात थे उसके। भला पत्नी को शादीशुदा ज़िंदगी के हर पहलू में बराबरी देना, हर मर्द के बस की बात कहां होती है? लेकिन सृष्टि ये सोच कर सब्र करती की शोभित तरुन के ही बचपन के दोस्त हैं, और दोस्तों अक्सर हमख्याल होते हैं। उसे यकीन थी कि शोभित के ख्यालात भी वैसे ही होंगे।
इतवार को शोभित का परिवार आने वाला था। बाबूजी और कुछ बेहद करीबी रिश्तेदार तैयारियों में जुटे थे। गर्मियों की दोपहर में जब मां और बाबूजी सो रहे थे, सृष्टि ने अलमारी से अपनी शादी का फोटो अल्बम निकाला और कुर्सी पर बैठकर तस्वीरें पलटने लगी। तस्वीरें बोल रही थी। उसका सुर्ख जोड़ा, तरुन की बादामी शेरवानी जो खुद सृष्टी ने पसंद की थी, शामियाने का रंगीन पंडाल जिसके लिए टेंटवाले से झगड़ा किया था, स्टेज का कलरफुल डेकोरेशन– सब रंग उसे घूर रहे थे। गालों पर एक आंसू लुढ़क आये। ये ज़िंदगी का वो रंग था जो वैसे ही उतर चुका था जैसे उसके नाखूनों से नेल पॉलिश।
एक फोन रिंग से उसका ध्यान टूटा
हैलो
Hey, Srishti..Whatsup Girl
अ.आ..कौन?
ले बेट्टा, अब आवाज़ भी नहीं पहचानती। ज़ेबा बोल रही हूं।
Zeba tum…… ?
ज़ेबा का नाम सुनकर सृष्टी के चेहरे पर खुशी की लाली फैल गई। बचपन की सबसे पुरानी दोस्त की आवाज़ उसे उसके रंग बिरंगे अतीत की तरफ खींचने लगी। ज़ेबा ही तो वो दोस्त थी जिसके साथ वो बचपन में आतिशबाज़ी करती थी। इन दिनों ज़ेबा मुंबई में एक कंपनी में जॉब कर रही थी।
कैसी है। कैसे याद आ गई तुझे आज। इतने वक्त के बाद? इतने दिन कहां थी? सृष्टी एक ही सांस में बोल गई। ज़ेबा ने कहा –
अरे यार बस पूछ मत, ये शादी भी ना, फुल टाइम जॉब होती है वक्त ही नहीं मिलता…
सृष्टि ज़रा झेंप गई, बोली – हां.. यो तो है.. ज़हीर कैसे हैं?
– बिल्कुल अच्छे हैं। तुम्हे बहुत याद करते हैं। वो सब छोड़, ये बताओ.. कॉलेज रीयूनियन प्लैन की जाए क्या… कितने ज़माने हो गए यार हम लोग मिले नहीं… और न दिवाली पर पटाखे फोड़े….
सृष्टि ज़ोर मुस्कुराई, कहा – नहीं अब कहां यार… वो तो अलग ही दिन थे। आई रियली मिस दोज़ डेज़।
ज़ेबा ने चहक कर बताया – अरे इसीलिए तो तुझे कॉल किया है। सुन, मैंने और ज़हीर ने college Alumni plan की है, और ये Alumni आम बोरिंग Alumni’s की तरह नहीं है। हम सब दिवाली से रात पहले .. यानि छोटी दिवाली को मिलेंगे और और फिर वैसे ही मिल कर पटाखे दगाएंगे … जैसे graduation के तीनों साल हमने कॉलेज में मनाया था…. क्या कहती हो….
दिवाली की बात सुनते ही सृष्टि की आंखों के सामने आसमान में उठती आतशबाज़ी घूमने लगी।
यादों की एक फुलझड़ी सी छूट पड़ी। उसे अपना गुज़रा हुआ कल याद आने लगा, आतिशबाज़ी से उसका दोस्ताना, उसका शौक। उफ्फ, ज़िंदगी ने कैसी करवट बदली थी। उसने तय किया कि वो इस री-यूनियन में ज़रूर जाएगी। सृष्ट् की ज़िंदगी के खोए हुए रंग जैसे लौटने लगे थे। एक तरफ शोभित के साथ उसके आने वाला कल और दूसरा कॉलेज की रीयूनियन दिवाली. वो खुश रहने लगी। उसके उदास चेहरे पर फिर से खिल आई मुस्कान देखकर बाबूजी और मां का चेहरा भी खिल जाता।
घर में तैयारियां ज़ोरों पर थी। पर्दों से लेकर, सोफा कवर तक सब बदल दिये दए थे। शोभित के परिवार के लिए बाबूजी अच्छे से अच्छा इंतज़ाम करना चाहते थे। पूरा घर साफ-सफाई के बाद चमचमा रहा था। मेहमानों के बैठने का इंतज़ाम घर की छत पर किया गया। शोभित के घर से चार-पांच लोगों को आना था लेकिन इंतज़ाम ऐसा था जैसे आज ही बारात आने वाली हो। सृष्टि के फुफा, चाचा-चाची और कुछ ख़ास पड़ोसी भी आ गए थे।
दोपहर दो बजे के आसपास डोरबेल बजी। सृष्टि के चाचा ने दरवाज़ा खोला तो दरवाज़े पर शोभित और उसका परिवार था। शोभित के साथ पांच लोग थे। सलाम-दुआ के बाद सबको अंदर बुलाया गया और कुछ देर तक मौसम की औपचारिक बातें होने लगी।
इधर सृष्टि अपने कमरे में बैठी थी कि मां दाखिल हुई– ओहो, तूने अभी तक बाल नहीं बांधे, वो लोग आ भी गए, तू भी ना..
कहते-कहते वो रुक गईं। सृष्टि की आंखों में आंसू थे और हाथ में तरुन की तस्वीर। वो सृष्टि के पास बैठ गईं और उसका सर सहलाते हुए उसे प्यार से समझाने लगी। हालांकि उनके ज़हन में कुछ और चल रहा था – वो सोच रही थी कि इतना बड़ा फैसला लेने के लिए भी शोभित के घर से कोई भी महिला सदस्य क्यों नहीं आई? क्या शोभित के घर में सब कुछ मर्द ही तय करते हैं?
कमरे में सृष्टि की पड़ोसी, पल्लवी दनदनाती हुई दाखिल हुई और हांफते हुए बोली– आपको बुला रहे हैं।
मां ने सृष्टि के सर पर हाथ फेरते हुए कहा – हां, मैं बस मैं आई।
छत पर हलकी धूप थी, मौसम खुश्क था। दोनों तरफ के रिश्तेदार नाश्ते और बातचीत में मसरुफ थे। शोभित के चाचा बोल रहे थे “लेकिन आजकल लाज-शरम बची कहां है। अब तो, आज पति गुज़रा, हफ्तेभर में लड़कियां फिर घूमने-फिरने लगती हैं। भई, पढ़ाई-लिखाई अपनी जगह लेकिन थोड़ी मर्यादा तो होनी ही चाहिए। अब देखिए, सृष्टि बिटिया भी तो पढ़ी-लिखी है, लेकिन संस्कार भी तो कोई चीज़ है”
शोभित खामोश थे। उनकी नज़र तो बार-बार सीढियों तक जाकर लौट आती।
कुछ देर बाद सृष्टि आई, मां ने उसे थामा हुआ था।
नज़रे मिली। शोभित ने आसमानी शर्ट और स्लेटी ट्राउज़र पहना था। सृष्टी कुर्सी पर बैठ गई, उसकी नज़रें नीचे थीं। उसे शोभित के जूते दिख रहे थे। वो, बार-बार नज़र उठाने की कोशिश करती लेकिन शोभित के रिश्तेदारों की घूरती हुई नज़रें उसे परेशान कर देती।
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