बिहार में जातीय सर्वे के रास्ते का आखिरी रोड़ा भी साफ हो चुका है. सीधे सीधे तो नहीं, लेकिन परोक्ष रूप से केंद्र सरकार, या कहें कि बीजेपी ने भी सर्वे को लेकर अपना समर्थन जता दिया है.
जातीय सर्वे को लेकर बीजेपी का यू-टर्न सुप्रीम कोर्ट में दाखिल केंद्र सरकार के हलफनामे में बदलाव के जरिये सामने आया है.
1 अगस्त को पटना हाईकोर्ट की तरफ से हरी झंडी दिखाये जाने के बाद बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने सर्वे की प्रक्रिया फिर से शुरू कर दी थी. तभी तीन दिन के भीतर बचे हुए काम पूरे कर लेने का भी निर्देश दे दिया गया था. 7 जनवरी, 2023 से शुरू हुआ जातीय सर्वेक्षण का काम पहले 15 मई तक पूरा किया जाना था.
बिहार सरकार ये भी बता चुकी है कि राज्य में जातीय सर्वेक्षण का काम पूरा हो चुका है – और जल्दी ही उसके नतीजे सार्वजनिक कर दिये जाएंगे.
केंद्र के हलफनामे में दिखा बीजेपी का यू-टर्न
सुप्रीम कोर्ट में जातीय सर्वे को लेकर हो रही सुनवाई के बीच केंद्र सरकार की तरफ से दाखिल हलफनामे में कहा गया था, ये अधिकार राज्य सरकार को नहीं है. हलफनामे के पैरा 5 में लिखा था, जनगणना कानून, 1948 के तहत केंद्र सरकार के अलावा किसी और सरकार को जनगणना कराने या वैसी मिलती-जुलती प्रकिया को अंजाम देने का अधिकार नहीं है.
लेकिन बाद में केंद्र सरकार ने भूल सुधार के तहत नया हलफनामा दाखिल किया, जिसमें कहा गया – ‘पैरा 5 अनजाने में शामिल हो गया था. ये नया हलफनामा संवैधानिक और कानूनी स्थिति को साफ करने के मकसद से दायर किया गया है.’
साथ ही, ये भी आश्वस्त करने की कोशिश की गयी है कि संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक एससी-एसटी, अति पिछड़ों और OBC तबके के लोगों के जीवन स्तर को उठाने के लिए केंद्र सरकार हर तरह के जरूरी कदम उठा रही है.
मोदी सरकार के नये हलफनामे से एक बात तो साफ है कि राज्य अपने स्तर पर जमीनी स्थिति समझने और जरूरी आंकड़े जुटाने के लिए जातीय सर्वेक्षण जैसे काम करा सकते हैं.
हाई कोर्ट में बिहार सरकार ये तो पहले ही साफ कर चुकी है कि जो कुछ हो रहा है, वो जनगणना नहीं बल्कि एक सर्वेक्षण भर है. वैसे ये बात बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव भी कह चुके हैं. जिस दिन सर्वे को नीतीश सरकार ने ग्रीन सिग्नल दिखाया था, मीडिया के सामने आकर तेजस्वी यादव भी यही समझाने का प्रयास कर रहे थे.
इस लिहाज से देखें तो उत्तराखंड में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर जो कमेटी बनायी गयी है, या जो भी आंकड़े जुटाये जा रहे हैं – वो प्रक्रिया भी तो बिहार के जातीय सर्वे जैसा ही है. तो क्या हलफनामा बदल कर बीजेपी की सरकार ने यूसीसी पर अपने स्टैंड का रास्ता भी साफ कर लिया है?
और इस तरह बिहार में जातीय जनगणना पर जारी बहस के बीच ये भी साफ हो चुका है कि राज्य की सामाजिक स्थिति के साथ साथ राजनीतिक परिदृश्य पर भी काफी असर पड़ने वाला है.
जातीय सर्वे के प्रभाव का दायरा वैसे तो काफी बड़ा लग रहा है, लेकिन मुख्यतौर पर इसके तीन खास असर देखे जा सकते हैं.
1. सर्वे से जातीय भेदभाव बढ़ सकता है
सर्वे से सूबे की विभिन्न जातियों की सामाजिक राजनीतिक स्थिति से जुड़े आंकड़े सामने आएंगे, जिसका पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले नेताओं को लंबे समय से इंतजार था. सर्वे के आंकड़ों से जातीय असमानता की सही तस्वीर पेश कर समाज में जागरुकता लायी जा सकेगी और उसी के हिसाब से पिछड़ी जाति के लोगों के लिए उनकी जरूरत के मुताबिक नीतियां बनायी जा सकती हैं.
2. पिछड़ों के लिए बेहतर सरकारी योजनाएं बनायी जा सकेंगी
सर्वे से मिले आंकड़ों को आधार बनाते हुए सरकार वेलफेयर स्कीम ला सकती है. ऐसा करने से समाज के आखिरी छोर पर रह रहे लोगों के लिए भी कल्याणकारी योजनाएं लायी जा सकेंगी जो उनकी जरूरतों को पूरा कर सके.
3. पिछड़ों की राजनीतिक हिस्सेदारी भी सुनिश्चित की जा सकेगी
जातीय सर्वे के आंकड़ों की बदौलत पिछड़े तबकों को राजनीति की मुख्यधारा में सही प्रतिनिधित्व मिल सकेगा.
आंकड़ों की मदद से चुनाव क्षेत्रों की भी नये सिरे से पैमाइश की जा सकेगी, ताकि आबादी के हिसाब से उनको लोकतंत्र में अपनी बात रखने का मौका और हक दिया जा सके.
लेकिन कई चुनौतियां भी बढ़ेंगी
जातीय सर्वे के आंकड़ों को लेकर कुछ एक्सपर्ट खासे चिंतित भी हैं. ऐसे विशेषज्ञों का कहना है कि सर्वे के आंकड़े सामने आने पर सामाजिक तनाव भी पैदा हो सकता है. मतलब, जातीय वैमनस्यता बढ़ सकती है.
ये भी जरूरी नहीं कि ऐसी तनावपूर्ण बातें सिर्फ पिछड़ों और अगड़ों के बीच से ही आयें. ये भी तो हो सकता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के बीच भी ऐसी भावना पैदा हो कि उनके हित प्रभावित हो रहे हैं.
अभी तो एससी-एसटी के लिए ही सीटें आरक्षित हैं, आगे चल कर ये भी हो सकता है कि पिछड़ों के लिए भी सीटें आरक्षित कर दी जायें. फिर तो ये भी हो सकता है कि चीजों को न्यायसंगत बनाने के लिए आंकड़ों के आधार पर एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटों की संख्या में भी बदलाव करना पड़े – फर्ज कीजिये, ऐसा हुआ तो क्या होगा? और अगर वास्तव में ऐसा हुआ तो उसके कैसे नतीजे सामने आएंगे?
ये भी तो हो सकता है कि जातीय सर्वे के आंकड़े पुराने जख्मों को भरने के काम आयें. सामाजिक विषमताओं के बीच जो लोग आज भी खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं, उनको लग सकता है सर्वे उनके लिए इंसाफ का तराजू बन कर आया है.
ऐसे में तस्वीर का दूसरा पहलू भी देखा जा सकता है. अगर लोगों को ये महसूस हो कि उनको उनका हक मिल चुका है. आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी की लंबे समय से चली आ रही मांग भी थम जाएगी – और जब ये बात हर कोई स्वीकार कर लेता है तो मान कर चलना होगा, इसी बहाने सामाजिक समरसता भी बढ़ सकती है.
लेकिन ये सब निर्भर इस बात पर करता है कि जातीय सर्वे के आंकड़ों का इस्तेमाल कैसे किया जाता है. अगर आंकड़ों का इस्तेमाल वोट बैंक को अपने पक्ष में करने के लिए जातीय भेदभाव पैदा करने में होता है, तो नुकसान ही नुकसान हो सकता है, ऐसा पहले से भी मान कर चलना चाहिये. लेकिन अगर सर्वे के आंकड़ों को समाज के हर तबके को बराबरी का दर्जा दिलाने की कोशिश में होती है तो कोई दो राय नहीं कि सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा.
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