कहानी – चुन्ने ख़ान का जिन्न
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
दोपहर का वक्त हुआ था। महबूब गंज इलाके की मशहूर जिन्नातों वाली मस्जिद में ज़ोहर की नमाज़ खत्म हुई ही थी कि थोड़ी देर बाद मस्जिद वाली गली गुलज़ार हो गयी। उस मस्जिद का नाम जिन्नातों वाली मस्जिद कब पड़ा ये किसी को नहीं पता था। बस सुनी सुनाई बातें थीं कि उस मस्जिद में जिन्नात भी नमाज़ पढ़ते हैं। मस्जिद की दीवार से लगी हुई बैटरी सर्विसिंग की दुकान चलाने वाले चुन्ने खान तो ये तक कहते थे कि एक बार एक आदमी नमाज़ के बाद मस्जिद के बीचो बीच आराम करने के लिए लेट गया तो एक जिन ने उसे उठा कर पटक दिया था। लोग इस बात को सच भी मानते थे।
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चुन्ने खान सुर्ख बालों वाले 40 पार के आदमी थे। लड़कपन सउदी की गलियों में ज़रदोज़ी का काम करते हुए बीता था। कुछ दस साल पहले वतन लौटे थे। और तभी मस्जिद के बगल वाली ये दुकान पा गए। चुन्ने भाई ने एक ज़िम्मेदारी और उठा रखी थी, और वो थी मस्जिद के लिए चंदा जमा करने की। नमाज़ खत्म होने के बाद जब सलाम फेर लिया जाता। तब इमाम साहब अपने बगल में रखा हुआ एक खाली डिब्बा पीछे वाली सफ में खिसका देते। फिर चुन्ने खान जो इमाम साहब के पीछे खड़े होते थे वो वही डिब्बा लेकर सबके मुंह के सामने करते जाते और लोग अपनी अपनी हैसियत से उसमें पैसे डालते जाते थे। चुन्ने खान साहब की जिस आदमी से नहीं बनती थी वो उसे आदमी के मुंह के सामने डिब्बा सटा देते और तब तक खड़े रहते जब तक वो शर्मिदा होकर दस बीस का नोट डाल नहीं देता। ऐसे ही एक शख्स थे हसीन अहमद…
अरे डालिये दस का नोट क्या डाल रहे हैं हसीन भाई… पचास का डालिये कम से कम… पीछे वाली दीवार में प्लास्टर होना है… दीन की राह में खुल कर नहीं देंगे तो कैसे चलेगा काम
चुन्ने खान हसीन अहमद से ये बुलंद आवाज़ में कहते तो मस्जिद के खामोश माहौल में सब नज़रें हसीन अहमद की तरफ मुंड जातीं और वो शर्मिंदा होकर पचास का नोट डिब्बे में डाल देते। फिर चुन्ने अपनी जेब में हाथ डालते और सबको सुनाते हुए कहते, चलिए भई मेरी तरफ से ये सौ रुपए… और फिर हसीन को ज़लील करने वाली नज़रों से देखते हुए बाकी लोगों की तरफ बढ़ जाते।
चुन्ने खान और हसीन अहमद की ये दुश्मनी आज की नहीं थी… ये शुरु उन ही दिनों में हुई जब वो सउदी अरब से लौटे थे। हसीन अहमद पहले बंगाल में कारोबार करते थे, बाद में काम वाम ठप्प हुआ तो यहां आ गए। अब वो दावा करते थे कि बंगाल में रहते हुए उन्होंने एक ऐसी टेक्नीक सीखी है जिससे किसी भी जिन, किसी भी भूत तो वश मे कर सकते हैं। मोहल्ले वाले उनकी ये बात मानते भी थे। क्योंकि उन्होने अपनी आंखों से देखा था कि मोह्ल्ले की बड़े ही मौतबर आदमी वकील साहब की बेटी नौशीन को जब जौरे पड़ते और वो चीखने लगती… पूरे मुहल्ले में शोर हो जाता कि नौशीन पर जिन आ गया है। और उस जिन को भगाने के लिए हसीन अहमद को बुलाया जाता। हसीन वकील साहब के घर पहुंचते तो देखते कि नौशीन बीच ज़मीन पर बैठी है, बाल फैलाए हुए और गोल गोल घूम रही है… और आंखे ऊपर चढ़ाए गा रही है।
जिन के सर हो…. इश्क़ की छांव
जिन के सर हो… इश्क़ की छांव…
अरे पलट तेरा ध्यान किधर है किरगिस्तान का जिन इधर है….
इंसान को चबवा दूं नाको चना
डस लूं तो कर दूं फना…
अरे… जिन के सर हो… इश्क की छांव
दरवाज़े पर लगी भीड़ में लोग बात करते अमा भाई, एक बात बताइये….कैसे पता की जिन्न ही है।
दूसरे आदमी पान खाते हुए मुंह उठा कर कहता, बौड़म हो क्या बे… देख नहीं रहे… कह रही है जिन के सर हो…
अरे तो वो तो गाना है…
अबे तो जिन ऐसे ही इशारे में बात करते हैं… देखो.. देखो.. हसीन अहमद आ गए… अब देखना कैसे काबू करेंगे। देखना
आंखों में सूरमा लगाए हसीन अहमद के आते ही नौशीन चुप हो जाती और फिर घों घों की आवाज़ निकालने लगती। बीच बीच में फिर गाती…. जिन के सर हो….
हसीन अहमद किनारे खड़े हुए वकील साहब की तरफ देखते और कहते हम्म, आप लोग बाहर जाइये… इस जिन्न से मैं निपटता हूं।
इसके बाद कमरे के दरवाज़े बंद हो जाते और फिर अंदर बिल्कुल खामोशी हो जाती। कुछ देर बाद हसीन अहमद और नौशीन बिल्कुल ठीक हालत में बाहर निकलते और वकील साहब हसीन अहमद को गले लगा लेते…
हसीन भाई आपका कैसे अहसान उतारें…
हसीन कहते… अरे अंकल, घर वाली बात है… अब है हाथ में शिफा… वैसे ये जिन है बहुत खतरनाक… यहां का नहीं है… किर्गिस्तान का है।
ओह… वकील साहब चौंक जाते। वहां का जिन यहां कैसे आया।
वो पूछते तो हसीन कहते, “अरे जिन को कोई वीज़ा थोड़ी लेना पड़ता है… ये तो हवाओं में होते हैं… अच्छी लग गयी होगी नौशीन, सवार हो गए। ख़ैर आप फिक्र मत कीजिए… मैं संभाल लूंगा”
पूरे मुहल्ले में जय-जयकार हो जाती थी हसीन अहमद की। लोग इज़्ज़त भी करने लगे थे हसीन अहमद की… और यही बात चुन्ने खान को काटती थी। क्योंकि वो आदमी शातिर थे… उनको शक हो गया था कि ये सब नौशीन और हसीन की मिली-भगत है, गहरी गुटुर गूं चल्ल लई है भैया हां। ये दोनों सबको मिल कर बेवकूफ बना रहे हैं।
सच था या झूठ लेकिन हसीन अहमद की डंपो हाई तो हो गयी थी। लोग पंडित जी की चाय की दुकान पर क्रीम रोल खाते हुए कहते... अमां भैय्या…. एक रुपया न लिया हसीन भाई ने वकील साहब से, और आधे घंटे में लड़की खड़ी कर दी दूसरा बोला, अरे भैय्या आदमी बहुत सरीफ हाथ में सिफ़ा… पैसा ले लेते तो जादू असर न करता, सिफा…. ये काम पैसे से नहीं.. उंह पत्ती बहुत डाल दी है पंडित जी
चुन्ने खान साहब को अब ज़बरदस्त चुन्ने काट रहे थे… क्योंकि इस जिन वाले मामले से पहले पूरे मोहल्ले में चुन्ने खान की बड़ी पूंछ थी। क्योंकि मस्जिद के खास इंतज़ामिया कमेटी में थे। पैसे जमा करने की ज़िम्मेदारी उठाई हुई थी। सब लोग अदब करते थे। कभी सड़क से गुज़रते तो दाए बाएं से ये आवाज़ें आती
अमां कहां जा रहे चुन्ने भाई, अमा चाय पीते जाइये… आइये
अरे चुन्ने खां साहब, आप तो आते ही नहीं। अच्छा सुनिए गरीब खाने पर हमाई बीवी की सालगिरह है, आना है आपको… हां बताए दे रहे हैं…
लेकिन अब हवा बदल गयी थी। अब हवा बहने लगी थी हसीन अहमद के रुख की तरफ। और वो भी इस रफ्तार से कि अक्सर लोग उन्हें अपने घर पर झाड़ने फूंकने के लिए बुलाने लगे।
आए हसीन भाई, बच्चे को नज़र लग गयी है ज़रा हाथ रख दीजिए सर पर
हसीन भाई, हमाई साली कैट का इम्तिहान देने जा रही है, बिल्ली ने रस्ता काट दिया… फूंक मार देते तो… हेहे
हद तो ये हो गयी कि एक रोज़ जब चुन्ने भाई पंडित जी की दुकान पर क्रीम रोल खा रहे थे तो बोले, पंडित जी, अमा क्रीम कम हो गयी है आपके रोल में… इतना कहा ही था कि उनकी नज़र सामने वाली दीवार पर चिपके पोस्टर पर गयी। जिसपर महीने के आखिरी इतवार होने वाले मुशायरे में चीफ गेस्ट के तौर पर हसीन अहमद की फोटो लगी थी। चुन्ने खान के पूरे जिस्म में चुन्ने काटने लगे। तभी पंडित जी बोले, हांय क्या कह रहे हो… हमाए रोल में क्रीम कम है? बदतमीजी करिहौ तो अभैन उठा के ये जो बन मक्कन के लिए जाली वाला तवा.. यही घुसा देब मुंह में… पूरी क्रीम निकल आइये… तुम्हारी… भग यहां से… चिरकुट… हटो सामने से… हसीन भाई के लिए स्पेसल चाय बना के भेजनी है.. हटो
चुन्ने खान के कानों में पंडित जी की आवाज़ गूंज रही थी और ज़हन में सामने लगे पोस्टर पर छपे हसीन अहमद की तस्वीर।
अब तो पानी सर से ऊपर उठ गया था। चुन्ने भाई ने अपने नौकर डिब्बा… हां डिब्बा ही नाम था उसका। हाफ पैंट पहने रहता था और चुन्ने भाई की दुकान पर बैटरियां उठा कर इधर उधर रखता था। कभी वो बैटरी में भरा जाने वाला हरे रंग का पानी बोतलों में भरता था। चुन्ने भाई ने गुससे में उसे आवाज़ दी…
डिब्बा… ऐ डिब्बा…
जी उस्ताद
दुकान संभालो… हम एक ज़रूरी काम से जा रहे हैं….
ये कहते हुए चुन्ने खान चल दिए सीधे वकील साहब के घर की तरफ… अब वो वकील साहब के सामने हसीन अहमद और नौशीन का पर्दाफाश करने वाले थे। सीधे घर पहुंचे… अंदर गए… वकील साहब को बुलाया… एक सांस में बता दिया कि उनकी बेटी और हसीन अहमद के बीच क्या चल रहा है… ये जिन विन का सब नाटक है…
वकील साहब माथा घुजलाते हुए बोले… देखो यार… थोड़ा बहुत शक तो हमें भी था.. लेकिन… लेकिन यार हसीन वैसा आदमी है नहीं… नेक लड़का… वो ऐसा नहीं करेगा… और फिर…. नौशीन कहती भी तो गाती है… जिन के सर हो… तो जिन तो होगा ही
– अरे क्या बात कर रहे हैं चच्चा… कल को वो गालिब की गज़ल पढ़ दे तो आप कहेंगे उस पर मिर्ज़ा गालिब का साया है… अरे कुछ तो अकल लगाइये…
– अरे नहीं, वो नहीं… मतलब… वो यार… वो अजीब गरीब ज़बान में बोलती है… मैंने पता करवाया तो ये उजबेकी ज़बान है जो किरगिस्तान में बहुत बोली जाती है…. और वो कहती भी है कि मैं किरगिस्तान का जिन…
– अरे चच्चा… ये सब बातें फर्ज़ी है… किताब पढ़ ली होएगी कोई… चार पांच लाइन सीख ली होगी… बस..
थोड़ी देर इधर उधर की बातचीत के बाद वकील साहब ने चुन्ने खान से कहा कि अगर वो ये साबित कर दें कि हसीन अहमद को जिन विन काबू करना नहीं आता… तो वो उनकी बात को सच मान लेंगे और फिर हसीन अहमद को घर में कभी घुसने नहीं देंगे।
अब चुन्ने खान की ज़िंद्दी का एक ही मक्सद था। हसीन अहमद और नौशीन की साज़िश का पर्दाफाश करना और कुछ नहीं। चुन्ने खान ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। कुछ दिनों तक बैठे दिमाग भिड़ाते रहे फिर एक आइडिया सूझा। एक दिन अपने नौकर डिब्बा को देखा… और फिर उसको देखते-देखते जाने क्या सोचने लगे… फिर उठ कर गए और उसका मुंह चूम लिया।
ये क्या उस्ताद… हम वैसे आदमी नहीं है
अबे भक… बात सुन मेरी… कान इधर लाओ…
समझ गए ना…
बस भाई साहब जाने क्या कान में फूंक दिया। अगली सुबह का मंज़र देखिए… चुन्ने खान बैटरी हाउस के बाहर मजमा जमा था। हर शख्स… अमा क्या हुआ… हुआ क्या भैय्या… अमा क्या हो गयी हैगी… कर रहा था। पता चला कि चुन्ने भाई का नौकर डिब्बा पर जिन का साया आ गया है।
वो नेकर पहने ज़मीन पर बैठा… घूम रहा था… और कहा रहा था…
हाहाहाहा… अबे … जिन हूं मैं… जिन…
रशियन हूं मैं… रशियन…
सब लोगों ने एक दूसरे को ग़ौर से देखा…
डिब्बा बोला… हां रशिया का जिन हूं सालों… आग का बना हूं… फूंक दूं तो फना कर दूं तुमको… तू मिट्टी का इंसान है… तेरी हैसियत क्या है… रशियन जिन हूं मैं… हाहाहाहा
उसकी आंखे लाल हो गयी थी… सब लोग उसे ग़ौर से देख रहे थे… कि तभी चुन्ने खान ने ड्रामा को आग बढ़ेते हुए कहा… भई बुलाओ अब… हसीन अहमद को बुलाओ… वो तो एक्सपर्ट हैं… जिन के… कहां छुपे हैं वो…बुलाओ उन्हें
थोड़ी देर में हसीन अहमद आए… उनको देखते ही डिब्बा… और ज़ोर से चीखने लगा… ज़मीन पर पैर फैलाए बैठा हुआ… गोल गोल झूमता रहा… और कहता रहा…
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