कहानी – सांवली सी एक लड़की
जमशेद कमर सिद्दीक़ी
एक बहुत बड़े फिलासफर ने कहा है कि आप कैसे दिखते हैं ये सिर्फ तब तक मायने रखता है जब तक आप बोलते नहीं। क्योंकि इंसान अपने लफ्ज़ों के पीछे छुपा होता, वो जितना ज़्यादा बोलता है, उतना ज़्यादा खुलता जाता है। और वो जैसे जैसे खुलता है। वैसे वैसे उसकी असलियत सामने आने लगती है। जो अच्छी भी हो सकती है और बुरी भी। मैं ये सब आप को क्यों बता रही हूं.. शायद इसलिए क्योंकि मुझे भी ऐसा ही लगता है कि मेरा पहला इम्प्रैशन किसी पर भी बहुत खराब होता है। यूं तो मैं एक फोटोग्राफर हूं, तस्वीरें लेने का शौक है मुझे लेकिन नमेरी तस्वीरें थोड़ी अलग हैं। मैं सुमंद्र के अंदर जाकर तस्वीरें खींचती हूं। (बाकी कहानी नीचे पढ़ें)
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मेरा ख्याल है अगर दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ों की कोई लिस्ट बनाई जाए तो समुंदर का ज़िक्र सबसे पहले आएगा। नीला रंग कितना खूबसूरत लगता है। है ना? लेकिन क्या कभी आपने नीले समुंदर के पानी को अपनी चुल्लु में भरकर देखा है। क्या रंग होता है पानी का? नीला? उन्हूं .. कोई रंग नहीं होता। दरअसल सुमंद्र की खूबसुरती उसके रंग में नहीं, उसके बहाव में है, उसके शोर में है, उसके उछाल में है, उसकी बेताबी में है। लेकिन फिर भी न जाने क्यों इसी रंग की बुनियाद पर पूरी दुनिया की तमाम इंसानी कौमों, को अलग-अलग हिस्से में बांट कर देखा जाता है। खासकर लड़कियों के मामले में उनका रंग कभी-कभी उनके सारे टैलेंट पर भारी हो जाता है।
मेरा नाम सलोनी है। मेरा रंग सांवला है। बचपन से ही मैं और मेरी बहन पायल के रंग का फर्क, मेरी inferiority complex की वजह बना रहा। हमारी उम्र में महज़ डेढ़ साल का फर्क था। पायल का रंग काफी गोरा था और मेरा संवाला। हालांकि हम दोनों के नैन-नक्श तकरीबन एक जैसे थे लेकिन मेरा संग सांवला होने की वजह से मैं अक्सर महसूस करती कि स्कूल और रिश्तेदारों के बीच जो attention पायल को मिलता था, वो मुझे कभी नहीं मिला। मैं पढ़ाई में पायल से अच्छी थी, मेरे नंबर हमेशा उससे ज्यादा आते थे लेकिन स्कूल के नाटकों में पायल को रानी का रोल मिलता और मुझे दासी या उसकी नौकरानी का। कमतरी के एहसास का बीज शायद यहीं से पड़ना शुरु हुआ था मुझमें। हां, घर पर दादी अक्सर मुझे लाड करते हुए कहती– रंग से थोड़ी कुछ होता है, इंसान का मन ख़ूबसूरत होना चाहिए। मैं जानती थी कि वो ऐसा मुझे अच्छा महसूस कराने के लिए कह रही हैं लेकिन उनकी बात सुनकर मेरा मन बार-बार यही सवाल करता – यानि मुझे खूबसूरत मन से ही इत्मिनान करना होगा? तो क्या मैं वाकई खूबसूरत नहीं?
मैं कमरे में रखे आइने में खुद को देर तक देखती जिसपर लिप्सटिक से लिखा था – You look Beautiful. मुझे अपनी बड़ी-बड़ी आंखें, उभरे हुए गाल और खूबसूरत होंठ-पसंद थे। आइने के सामने अलग-अलग तरह से मुस्कुराकर देखती– कि कैसी लग रही हूं। मुझे अपने रंग-रूप से कोई गिला नहीं था। मैं अपनी नज़रों में खूबसूरत थी। लेकिन ये दुनिया, जाने क्यों मुझे हर बार हमदर्दी की नज़र से देखती थी।
मैं क्लास में हमेशा First आती थी। पापा और मम्मी मुझे बहुत चाहते थे लेकिन जब वो मुझे पायल से कुछ ज्यादा प्यार करते थे तो मेरा मन उदास हो जाता था। मुझे महसूस होता कि वो मुझे ज्यादा प्यार इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि मुझे ज्यादा प्यार की ज़रूरत है या शायद ये कि मुझे ससुराल में प्यार नहीं मिलेगा।
धीरे-धीरे वक्त गुज़रा। मैंने और पायल ने उम्र की नई दहलीज पर कदम रख चुके थे। मैं उन दिनों फोटोग्राफी इंस्टीट्यूट में इंटर्नशिप कर रही थी। यही वो दौर था जब पहली बार मैंने घर में अपने रिश्ते के सिलसिले में, सुगबुगाहट महसूस की। मुझे हैरानी थी कि आखिर इतनी जल्दी क्या है लेकिन मम्मी-पापा को जल्दी थी। उन्हे शायद लगता था कि मेरे लिए रिश्ता मिलने में वक्त लगेगा, इसलिए वो जल्दी शुरुआत करना चाहते थे।
एक दोपहर, मैं अपना कैमरा गले में डाले हुए, कूदती-फांदती इंस्टीट्यूट से घर लौटी तो देखा कि घर में साफ-सफाई चल रही थी, माहौल बदला-बदला सा था। मुझे देखते ही, मम्मी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे मेरे कमरे में लाकर तैयार करने लगीं। लड़के वाले मुझे देखने आ रहे थे। मम्मी ने मुझे एक purple साड़ी पहनने को दी। शायद उनको लगता था कि इस रंग को पहने से complexion गोरा दिखता है। मम्मी और पायल ने मेरे चेहरे पर मेकअप की कई तहें भी जमा दीं। मैं बहुत नर्वस थी। धड़कनें, जैसे सीने से बाहर हो रही थी।
ख़ैर, कुछ देर में मम्मी और ने पायल मुझे पूरी तरह तैयार कर दिया और फिर वो दूसरी तैयारियों में लग गई। अब मैं कमरे में अकेली थी। मैंने आइने में खुद को देखा। और शायद, पहली बार खुद को देखकर उदास हो गई। मेरे चेहरे पर सफेद रंग जैसा बहुत सारा पाउडर थोप दिया गया था। मैं गोरी तो लग रही थी लेकिन ख़ूबसूरत नहीं।
खैर कुछ देर बगल वाले कमरे में आहटें सुनाई देने लगीं। लड़के वाले आ गए थे। मेरी धड़कनें तेज़ हो रही थी। कभी आइने में खुद को देखती, कभी दरवाज़े की आड़ से बाहर झांकने की कोशिश करती। आवाज़ से अंदाज़ा हुआ… तीन-चार लोग थे। शीला आंटी की आवाज़ भी सुनाई दी। शीला आंटी हमारी पड़ोसी थी और रिश्ते लगाना उनका फुल टाइम जॉब था। कुछ ही वक्त गुज़रा था कि मेरे कमरे के दरवाज़े पर आहट हुई, मम्मी थी। वो आईं और मुझे चलने के लिए कहा। मम्मी के चेहरे पर भी अजीब सा भाव था। मैंने इससे पहले उनके चेहरे का ये रंग नहीं देखा था। मैं उनके साथ चल दी। मम्मी ने मेरे कंधे पकड़े लिये जैसे मैं कोई बीमार हूं, और धीरे-धीरे चलने का इशारा किया। ड्राइंग रूम दाखिल होने से ठीक पहले, दरवाज़े पर छोटी बहन पायल ने मुझे ड्राइ-फ्रूट्स से सजी एक ट्रे थमा दी। मैंने ट्रे पकड़ ली। मम्मी ने फिर इशारा किया और मैं छोटे-छोटे कदमों से ड्राइंग रुम की तरफ बढ़ गई।
“लो बेटा विकी, तुम तो कुछ खा ही नहीं रहे”
ये पहला जुमला था जो मैंने ड्राइंग रूम में दाखिल होती ही सुना, मेरे वहां पहुंचते ही एक सन्नाटा सा छा गया। फिर एक आवाज़ गूंजी।
अरे, आओ सलोनी बेटा आओ, यहां बैठो.. हां इधर .. आराम से बैठो।
ये आवाज़ शीला आंटी की थी। मैंने ट्रे मेज़ पर रखने की कोशिश की, लेकिन मेज़ पर पहले ही बहुत सारा नाश्ता था, कुछ प्लेट्स खिसका कर जगह बनाने की ज़रूरत थी। लेकिन वहां मौजूद, किसी ने भी उस तरफ ध्यान नहीं दिया। सबकी नज़र मेरे चेहरे पर थी। तभी एक आवाज़ गूंजी
लाइये ये मुझे दीजिए– ये आवाज़ विशाल की थी। विशाल ने ट्रे मुझसे ली और दूसरे हाथ से कुछ प्लेट्स खिसका कर मेज़ पर जगह बनाकर, ट्रे रख दी।
मैं उस लड़के को पहली बार देख रही थी। लेकिन मुझे उसका ये gesture अच्छा लगा। लोग मुझे एकटक ऐसे देख रहे थे जैसे नोमाइश में आए हों। माहौल में एक अजीब सी खामोशी थी। लेकिन थोड़ी देर बाद बातचीत का सिलसिला चल पड़ता। इधर-उधर की तमाम बातें होती रही। आंटी यानि विशाल की मम्मी अपने बेटे की तारीफ के पुल बांधने लगी और ये बताने लगी कि उसके रिश्ते कहां-कहां से आ रहे हैं। विशाल बैंक में जॉब करता था। वो देखने में भी अच्छा ही था। मैंने ग़ौर किया कि उसके चेहरे पर लगातार एक मुस्कुराहट थी।
ख़ैर बातों का सिलसिला चलता रहा, यहां-वहां की तमाम बातें हुई। विशाल के पापा ने मुझसे मेरी इंटर्नशिप और आगे के प्लांस के बारे में पूछा। मैंने उन्हे अपने प्लांस के बारे में बताया। लेकिन उनका चेहरा देखकर जाने क्यों मुझे लग रहा था जैसे सारे सवाल-जवाब बेमायने हों, सारी बातें फ़िज़ूल, जैसे वहां जो कुछ भी हो रहा था.. सब यूं ही था.. बेवजह। लेकिन जब-जब खामोशी कमरे को अपनी आग़ोश में लेती शीला आंटी माहौल को संभालने की कोशिश करती। वो मुझे मेरे बचपन से देखती आईं थी, पड़ोसी जो थी। वहां बैठे लोगों से मेरी तारीफ करने लगती..
सलोनी, पढ़ाई में बहुत अच्छी है, Swimming Champion है, ‘फोटो वाला कोर्स’ भी कर रही है, बहुत ही संस्कारी लड़की है
मैंने कनखियों से विशाल को देखा तो उसके चेहरे पर अब भी हलकी सी मुस्कुराहट थी, जो शायद मेरी तारीफ सुनकर उभर आई थी। हालांकि सामने बैठे उसके मम्मी-डैडी सिर्फ हां में सर हिला रहे थे। लेकिन इस बीच जब मेरी नज़र मेरी मम्मी और पापा पर पड़ी, तो देखा, उनके चेहरे का रंग कुछ अलग था। मुस्कुराहट उनके चेहरे पर भी थी, लेकिन ऐसी.. जैसे किसी के एहसान तले दब रहे हों, ऐसी बेचारगी मैंने उनकी आंखों में पहले कभी नहीं देखी थी।
“आपकी एक छोटी बेटी भी है ना, वो नहीं दिख रही” – विशाल की मम्मी ने पूछा तो मेरी मम्मी ने हड़बड़ाहट में जवाब दिया
आ..अ.. हां, वो अ..आ कॉलेज गई है.. उसकी एक्सट्रा क्लास है तो..
मम्मी का जवाब सुनते ही मैं चौक गयी। मम्मी ने झूठ क्यों बोला…. पायल तो अंदर ही थी। वजह मुझे पता थी। मेरा मन कई हिस्सों में टूट कर बिखर गया।
ख़ैर इस बात को कई दिन बीत गए। एक शाम, मैं और पायल पड़ोस वाली शीला आंटी के घर पहुंचे, उनके छोटे बेटे विवान का बर्थडे था। काफी लोग थे विवान की पार्टी में। मैं औऱ पायल जल्दी-जल्दी केक के पास जमा भीड़ में घुसते हुए birthday boy विवान के पास खड़े हो गए। कुछ देर में केक कटा। और माहौल में बर्ड डे सांग गूंजने लगा।
तभी मुझे शरारत सूझी… मैंने केक का छोटा सा पीस उठाया और विवान की नाक पर छुआ दिया। सब लोग हसने लगे। फिर विवेक ने थोड़ा सा केक मेरे चेहरे पर लगा दिया और उसके बाद केक बारी का गेम शुरु हो गया। शीला आंटी के भी केक लगाया गया। ये खेल मैंने शुरु किया था… लेकिन मैं चुपचाप वहां से खिसक ली और दूसरी तरफ आ गयी।
मैं अपने हाथ पर लगा केक पोछने के लिए टिशू ढूंढ रही थी कि तभी मेरे सामने एक रुमाल थामे हुए हाथ आया।
लीजिए, ये ले लीजिए… मैंने गौर से देखा तो वो … वो विशाल था।
विशाल को वहां देखकर मैं चौंक गयी। शायद शीला आंटी के रिश्तेदार होने की वजह से वो उस बर्थ डे पार्टी में था। घुंघराले बाल, लाल रंग की शर्ट और ब्लू जींस पहने वो अच्छा लग रहा था। पर मैनें उसे घूर कर देखा, और बिना जवाब दिये दूसरी तरफ चली गई। विशाल मुझे ग़ौर से देख रहा था… लेकिन मैंने उसकी तरफ बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। औऱ मैं तेज़ कदमों से घर की तरफ निकल आई। लेकिन घर पहुंची तो यहां पापा और मम्मी के चेहरे पर
एक अजीब सी उदासी थी। मैंने पूछा तो पता चला – विशाल के घर से इस रिश्ते के लिए इंकार कर दिया गया।
मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मुझे बहुत ऊंची पहाड़ी पर ले जाकर मुझे वहां से धक्का दे दिया हो। और मैं नीचे गिरती जा रही हूं। बहुत नीचे। रिजेक्शन आपको अंदर तक तोड़ देता है। मुझे भी तोड़ दिया था। पर ज़िंदगी है, तो जीना तो है ही। क्या कर सकते हैं। दर्द से उभरने में वक्त लगता, लेकिन फिर एक ऐसी मिली की सारे ग़म धुल गए। कम से कम ग़म-ए-रोज़गार के तो दिन खत्म ही हो गए। जिस कंपनी में मैं इंटर्नशिप करती थी। वहां मुझे जॉब ऑफर हुआ। अब मैं एक प्रोफेशनल अंडर-वॉटर फोटोग्राफर थी। और इतना ही नहीं अगले ही हफ्ते मुझे off-Shore भेजने की तैयारी भी चल रही थी। मैं बहुत खुश थी, इंफैक्ट घर में सभी खुश थे। मैं अपने आने वाले उन दिनों के बारे में सोचने लगी जो समंदर की गोद में बीतने वाले थे। मेरे ख्वाब लहरों की तरह हिलोरे ले रहे थे।
एक शाम जब मैं ऑफिस से निकल रही थी कि एक आवाज़ से चौंक गई। …
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