Jhund Movie Review: निर्देशक नागराज पोपटराव मंजुले (Nagraj Popatrao Manjule) की अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) स्टारर फिल्म ‘झुंड’ (Jhund) इस शुक्रवार सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है. वैसे तो भारतीय सिनेमा में स्पोर्ट्स को जोड़ते हुए कई फिल्में बनीं हैं, जिनका असर दर्शकों पर खूब भारी पड़ा है. लेकिन नागराज मंजुले की ये फिल्म सिर्फ फुटबॉल जैसे खेल को नहीं दिखाती है, बल्कि खेल के मैदान के जरिए हमारे समाज के ‘पीछे छूटे भारत’ को सिनेमा के पर्दे पर लाकर खड़ा कर देती है. इस फिल्म में एक झुग्गी का बच्चा पूछता है ‘ये भारत क्या होता है…’ अगर आप भी इस सवाल का सही जवाब जानना चाहते हैं तो आपको ये फिल्म देखनी चाहिए.
कहानी: ‘झुंड’ की कहानी नागपुर की झुग्गी बस्ती से शुरू होती है, जहां के बच्चे से लेकर युवा तक चेन-स्नैचिंग, मारपीट, दंगा, चोरी, नशा, ड्रग्स या कहें जिसे भी समाज में बुराई कहा जाता है, वह सब काम करते हैं. झुग्गी के इन बच्चों को ‘समाज की गंदगी’ कहा जाता है, लेकिन विजय बरसे (अमिताभ बच्चन) , जो इसी झुग्गी के पास बने कॉलेज में प्रोफेसर हैं, उन्हें इन बच्चों में गंदगी नहीं बल्कि हुनर दिखता है. विजय अपना खुद का पैसा लगाकर झुग्गी के इन बच्चों को न केवल फुटबॉल का खेल खिलाते हैं, बल्कि एक टीम की तरह तैयार करते हैं. लेकिन क्या ऐसा हो पाता है, और क्या समाज हाशिए पर पड़े इन बच्चों को अपने बीच जगह देता है, ये आपको इस फिल्म में देखने को मिलेगा.
‘झुंड’ की बात शुरू करने से पहले मैं आपको बता दूं कि नागराज मंजुले वहीं हैं, जिन्होंने अपनी मराठी फिल्म ‘सैराट’ से देशभर में हंगामा मचा दिया था. ‘सैराट’ मूल रूप से मराठी फिल्म है (जिसे हिंदी में करण जौहर के प्रोडक्शन हाउस ने ‘धड़क’ के नाम से रीक्रिएट किया है) और इस फिल्म की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मराठी न जानने वाले लोगों ने भी सैराट को देखा और इसकी जमकर तारीफ की. इस बात का जिक्र मैंने यहां इसलिए किया क्योंकि अगर आपने ‘सैराट’ देखी है तो आप जानते हैं कि मंजुले सिनेमा पर जादुई दुनिया दिखाने वाले निर्देशक नहीं हैं. वह पर्दे पर सच रखते हैं, बिलकुल देसी और खाटी अंदाज में और कभी-कभी ये सच इतना नंगा होता है कि हमें शर्म आ जाती है. ‘झुंड’ भी ऐसा ही नंगा सच है.
झुंड की कहानी नागपुर में बेस्ड है.
फिल्म के पहले ही सीन से आप झुग्गियों और बस्तियों की दुनिया का ऐसा चेहरा देखते हैं, जो बिलकुल सच है. जिसमें जबरदस्ती की ‘पेंटिंग’ करने की कोशिश नहीं है. 3 घंटे की इस फिल्म में शुरुआत का समय करेक्टर और वो महौल सेट करने में लगाया गया है, जिसकी कहानी आपको आगे सुननी है. हालांकि मुझे ये फिल्म थोड़ी लंबी लगी और इसे थोड़ा छोटा किया जा सकता था. कई सीन्स आपको लंबे लग सकते हैं. फिल्म में बैकग्राउंट स्कोर का बहुत ज्यादा इस्तेमाल नहीं है, लेकिन म्यूजिक इस फिल्म का अच्छा है. म्यूजिक डायरेक्टर अजय-अतुल ने अपने सिग्नेचर अंदाज में कुछ भावुक और ‘झिंगाट’ टाइप गाना ‘झगड़ा झाला…’ भी है.
एक्टिंग की बात करें तो अमिताभ बच्चन को एक्टिंग के लिए आंकना मुझे नहीं लगता सही होगा, क्योंकि वह अब खुद एक्टिंग का एक इंस्टिट्यूट हो चुके हैं. लेकिन काबिल-ए-तारीफ बात ये है कि अमिताभ बच्चन के सामने झुग्गी बस्ती के बच्चों का किरदार जिन बच्चों ने किया है, वो कमाल हैं. उनका अंदाज, बॉडी लेग्वेज आप हर चीज की तारीफ करेंगे. बॉलीवुड अंदाज की डिशुम-डिशुम नहीं है, बल्कि असली मारपीट जिसे कहते हैं, वो आपको देखने को मिलेगी.
झुंड में अमिताभ बच्चन एक प्रोफेसर बने हैं.
इस फिल्म में एक फुटबॉल मैच भी है, उसे देखकर हो सकता है मेरी तरह ही आपको भी ‘चक दे’ का वो सीन याद आ जाए… जब वर्ल्ड कप में पहुंची टीम टाई-ब्रेकर से मैच जीतती है. आखिर में कहूं तो एक हिंदी फिल्में देखते आ रहे दर्शकों के लिए एक मराठी निर्देशक की अच्छी कोशिश है, जो सिनेमा को अलग ही अंदाज में दिखाता है. कई बार आपको ये फिल्म डॉक्यूमेंट्री जैसी लगने लगेगी, लेकिन ये भी एक तरीका है कहानी कहने का और मेरे हिसाब से मजेदार तरीका है. मेरी तरफ से इस फिल्म को 3.5 स्टार.
डिटेल्ड रेटिंग
कहानी | : | |
स्क्रिनप्ल | : | |
डायरेक्शन | : | |
संगीत | : |
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Tags: Amitabh bachchan, Jhund Movie, Movie review
FIRST PUBLISHED : March 02, 2022, 16:00 IST
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