हिंदी फिल्मों के मशहूर गीतकार शैलेंद्र की आज 100वीं जयंती है. शंकरदास केसरीलाल शैलेंद्र का जन्म 30 अगस्त 1923 को पंजाब के रावलपिंडी में हुआ था. यह स्थान अब पाकिस्तान में है. शैलेन्द्र एक लोकप्रिय भारतीय हिन्दी-उर्दू कवि, गीतकार और फिल्म निर्माता थे.
शैलेन्द्र ने अपने करियर की शुरूआत 1947 में बॉम्बे के माटुंगा स्थित भारतीय रेलवे की वर्कशॉप में एक प्रशिक्षु के रूप में की. उन्हीं दिनों उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया. एक बार फिल्म निर्माता राज कपूर एक मुशायरे में गए. उस मुशायरे में शैलेंद्र ने एक कविता पढ़ी ‘जलता है पंजाब’. राजकपूर को यह कविता इतनी पसंद आई कि उन्होंने इस कविता को अपनी फिल्म आग में शामिल करने का प्रस्ताव शैलेंद्र के समक्ष रखा. लेकिन किन्हीं कारणों से यह बात आगे नहीं बढ़ पाई.
हालांकि, कुछ समय बाद शैलेंद्र की पत्नी के गर्भवती होने के बाद उन्हें पैसों की जरूरत पड़ी तो उन्होंने राज कपूर से संपर्क किया. उस समय राज कपूर ‘बरसात’ (1949) फिल्म कर रहे थे और फिल्म के दो गाने अभी तक नहीं लिखे गए थे. शैलेन्द्र ने फिल्म के लिए दो गाने लिखे: पतली कमर है और बरसात में. दो गानों की एवज में उन्हें 500 रुपये का भुगतान किया गया.
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शैलेंद्र ने हिंदी फिल्मों के लिए एक से बढ़कर एक सदाबहार गाने लिखे. ये गाने आज भी गाये-गुनगुनाए जाते हैं. लेकिन हिंदी साहित्य की दुनिया में शैलेंद्र को वह तवज्जो नहीं मिली जिसके वे हकदार थे. राजकमल प्रकाशन से एक किताब शैलेंद्र पर प्रकाशित हुई है- “कवि शैलेंद्र जिंदगी की जीत में यकीन”. और इस किताब के लेखक हैं प्रहलाद अग्रवाल.
इस पुस्तक में प्रहलाद अग्रवाल लिखते हैं कि शैलेंद्र कोई अकेले नहीं हैं और पहले भी नहीं हैं, विद्वज्जनों ने जिनकी ओर नज़र नहीं डाली. शैलेंद्र के गीतों को साहित्य के तराजू में रखकर आंकलन करने वाली इस पुस्तक का एक अंश यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-
तेरी एक बूँद के प्यासे हम
शैलेन्द्र के लिखे सैकड़ों गीत आज भी लाखों लोगों के दिलोदिमाग को सुकून और हौसला देते हैं. फिल्मों के लिए लिखे गए ये गीत हमसे अक्सर ये सवाल करते हैं कि हमने इन्हें साहित्य की सरहदों से दूर रखकर क्या साहित्य के लोकधर्मी प्रवाह के अनन्य सौन्दर्य की उपेक्षा करने का अपराध नहीं किया? ये गीत सिनेमा के लिए जरूर लिखे गए हैं लेकिन इनकी स्वतंत्र इयत्ता, सार्थकता और सहज बिंब विधान की अत्यन्त विरल क्षमता इन्हें साहित्य की गरिमा प्रदान करती है. 1970 के बाद हिन्दी सिनेमा में इस स्तर के गीत खोजे ही नहीं जा सकते.
शैलेन्द्र के अनेक गीत ऐसे हैं जो गुनगुनाए जाने पर सम्पूर्ण फिल्म और चरित्र को हमारी आंखों के सामने हाजिर कर देते हैं. शैलेन्द्र के गीतों की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वे सामूहिक सृजनशीलता के बीच भी अपनी व्यक्तिगत ऊंचाई बनाए रखते हैं.
शैलेन्द्र ने बहुत पहले ही लिख दिया था मानो आगे आने वाले वातावरण के बारे में- जिसे हम हिन्दी फिल्म संगीत में आज लगातार सच होते हुए देख रहे हैं- टीन कनस्तर पीट-पीटकर गला फाड़कर चिल्लाना, यार मेरे मत बुरा मान ये गाना है न बजाना है. गुलजार, जावेद अख्तर, निदा फाज़ली जैसे लोग भी जरूर हैं जो सिनेमा में आज के नितान्त गैरशायराना माहौल में भी कुछ सार्थक कर पाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं. निश्चित ही शैलेन्द्र, साहिर लुधियानवी, शकील बदायूंनी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे गीतकारों की गौरवशाली परम्परा की एक बूंद के लिए आज हम प्यासे हैं.
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शैलेन्द्र के गीत हिन्दी सिनेमा की प्रकृति से सम्पूर्ण तालमेल बैठाने में समर्थ हैं. राजकपूर के साथ गहन अंतरंगता ने शैलेन्द्र को यह अच्छी तरह समझा दिया था कि सिनेमा सामूहिक सृजन का माध्यम है. निर्देशक के मन्तव्य के साथ एकाकार होकर ही कोई भी सहयोगी फिल्म का महत्वपूर्ण स्तम्भ बन सकता है. सामूहिक सृजन के आधार को ग्रहण कर शैलेन्द्र ने एक ओर फिल्म की कथावस्तु में विभिन्न आयामों की बारीकियों का निरीक्षण किया, दूसरी ओर फिल्म के निर्देशक की दृष्टि को आत्मसात किया और फिर संगीतकार की धुन को शब्द पहनाए. इतना ही नहीं, शब्दों के चयन में वे इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि शब्द हिन्दी सिनेमा की प्रचलित शब्दावली से बहुत अधिक अलग-थलग न पड़ जाएं. इस तरह सीमित शब्दों की दुनिया में रहकर भी वे उन शब्दों के निजी ‘प्लेसमेण्ट’ और कथा की मूल भावना के व्यावहारिक संदर्शों को एकमेक कर शैलेन्द्र ने हिन्दी फिल्मों को विलक्षण गीत दिए जो काल का अतिक्रमण कर सके.
शैलेन्द्र के गीत इसलिए अधिक-से-अधिक जनमानस के निकट पहुंच सके क्योंकि वे विमलराय, राजकपूर, विजय आनन्द आदि महान फिल्मकारों की महान फिल्मों के माध्यम से जनता तक पहुंचे. वहीं दूसरी ओर उनके गीतों को धुनों में ढालने वाले संगीतकार आवाम में बेहद मकबूल थे. शंकर जयकिशन की फिल्मों के कम-से-कम 75 प्रतिशत गीत तो अपार लोकप्रिय होते हैं वहीं दूसरी ओर सलिल चौधरी तथा सचिन देव वर्मन जैसे लोकशास्त्र में डूबे संगीतकारों की धुनों में शैलेन्द्र के गीतों को जनता के दिलों के नजदीक पहुंचाया. यह इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि शैलेन्द्र ने सिनेमा को समग्रता में एक कविता की तरह देखा. यह काम उनका अपना अकेला है. यही कारण था कि ये फिल्म निर्माण की ओर उन्मुख हुए. वे नवीनता के प्रबल आग्रही थे पर उस नवीनता को आतंक के एकाधिकार में नहीं ढकेलना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने स्वनिर्मित फिल्म में तरलता का गहन आधार चुना. जहां गीत लेखन के क्षेत्र में उन्होंने अपार सफलता प्राप्त की वहां फिल्म निर्माण ने उन्हें आत्मनाश की ओर धकेल दिया. शैलेन्द्र के सिनेमा के लिए लिखे गए गीतों में जीवन की व्यावहारिक काव्यात्मकता छलकती है. रोजमर्रा के प्रसंगों से गीतों के क्षितिज खुलते हैं. दैनदिन जीवन की मामूली बातों के जरिए वे भावनाओं और विचारणाओं के इन्द्रधनुष तैयार करते हैं.
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Tags: Books, Hindi Literature, Hindi Writer, Literature
FIRST PUBLISHED : August 30, 2023, 12:29 IST
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